Monday, February 16, 2009

हथकडी....



किस
खुशी की बेबसी का अब मुझे फिराक है
आज तो यहाँ पर सारा गुल्सितां ही राख है
हाथ थामे साथ चल रहे थे जिसके अब वही
हमसफ़र ने मेरे मुझसे फेरी अपनी आँख है

दायरों के कायदों में बाँध के कौन रह सका
हर घड़ी इस हथकडी की कैद कौन सह सका
मैं ही क्या वो वीर हूँ जो बाँध सारे तार
अपने सर पे लिख रहा हूँ अपनी जिंदगी का सार

कोई सुन रहा नही है, कंठ थक गए हैं पढ़ के
बत्तियां बुझी है, लोग सो रहे हैं इस शहर के
हथकडी के फायदे में, हमसफ़र के कायदे में
तार बांधे रह गया हूँ ,गुल्सितां में मैं बिछड़ के...

खामोशी......

कभी अंधेरे दीवारों पर हाथ रखे सुनता हूँ मैं
की इस कैद से आज़ादी का मकसद क्या मदहोशी में
सिखा कितना कुछ मैंने इस दीवार से अक्सर जो
कहे सुने लब्जों से ज्यादा कह जाती खामोशी में....

एक ही कमरे के दो कोने में बैठे खामोशी से
सोच रहे थे की बातों का मतलब क्या मदहोशी में
बातें प्यार मोहब्बत की सालों से
कितनी अनसमझी
नफरत की हर नब्ज़ पकड़ ली दो पल की खामोशी में....

सब ग़लत है जो भी जाना था, सब ग़लत है जो भी समझा था
जो सोचा सब अनचाहा था , जो पाया सब अनसुलझा था
चिल्लाने का जी करता है कभी इन्हीं सन्नाटों पर
पूरे जिस्म से लिपट रहे हर तरफ से चुभते काँटों पर

..पर कहता हूँ ख़ुद को गुजरे इतने दिन मदहोशी में
बस कुछ पल है और बिता लो इनको भी खामोशी में ....

Thursday, February 12, 2009

देखा है कभी.....?

रोज़ सुबह जब आखे मीचे जाग खड़ा मैं होता हूँ
खिड़की के उसपार कहीं कुछ देख रहा भी होता हूँ

देखा है कभी पत्तों पर सुबह की ओस जो आहें भरती है
सूरज की हर किरण समेटे यूँ ही लेटे रहती हैं
कुछ पल के जीवन उसके रंग है इतने घुलते से
पाने की चाहत है कुछ और वो ऐसा कहती है
और यहाँ मैं जाग रहा हूँ ख़ुद को हासिल होने को
हो तैयार है जाना मुझको भीड़ में शामिल होने को

दिन चढ़ते ही जाने भीड़ के मन में क्या समाता हैं
चल पड़ती है रौंद के उसको जो रस्ते में आता हैं

देखा है कभी इस भीड़ में वो चेहरे जो बहते जाते हैं
कुछ सोच रहे होते हैं वो, कुछ और ही कहते जाते हैं
बस पीछे पीछे आगे वाले के चलते जाने क्यूँ
किसी इमारत,गाड़ी में गुम होते रहते जाते हैं
मैं क्या बोलूं मैं भी तो उनमे से ही एक चेहरा हूँ
जानता हूँ क्या सोचा है पर जाने क्या कह रहा हूँ

फिर शाम का वो विराना जब नभ रंग बदलने लगता है
थकते बादल के चेहरे पर सूरज जब ढलने लगता है

देखा है कभी उस बादल को, धीरे धीरे जो अम्बर से
भूल के दिन का हाल टिका रहता है लटके लंगर से
सोच रहा होता है ठहरती धूल तले इस धरती पर
कितने सपने पूरे कर लेगी भीड़ सुबह की अर्थी पर
काश वो बादल मैं होता तो हँसता उनपर अन्दर से
इक दिन और है खोया जिनने जीवन के शांत समंदर से

हर रात कभी सिरहाने मैं, जब सपने लेकर सोता हूँ
झुकती आखों से दूर कहीं कुछ देख रहा भी होता हूँ

देखा है कभी अंधेरे मैं परछाइयाँ कहाँ जाती हैं
वो सुनती हैं, बतियाती हैं, शर्मातीं हैं, इतराती हैं
अंधेरे मैं गुम होने का लुत्फ़ वो खूब उठाती हैं
हर बंधन, हर नज़र से होके मुक्त वो रात बिताती हैं
काश! मैं वो परछाई होता, हर दिन, दिन ढलते ही जो
कुछ पल को ही सही, पर हो आजाद जो हँसती गाती हैं

फासला.....



कहाँ से चला था, कहाँ जा रहा हूँ
पता तो नही, बस चला जा रहा हूँ
न काफिले हमसफ़र साथ कोई
अकेला क्यूँ जाने चला जा रहा हूँ

तारो का गुम्बद, फलक के वो फेरे

पलटता वो सूरज, बिखरते अंधेरे
दबी रौशनी में, चमकता जो उपर
लेने मैं शायद आसमा जा रहा हूँ

देखा था मैंने उसको आँखें मूंदे
झुकती पलक पर दो पानी की
बूँदें
माँगा नही जिंदगी से कभी जो
करने मैं वो इल्तेजा जा रहा हूँ

उठते नही अब तूफ़ान मेरे मन में
इतनी ही ताकत बची है जहन में
बस कह दूँ एक अलविदा फिर से फिर
मैं न आने की कसमें निभा जा रहा हूँ

लगने लगा है मुझे आज वापस
कुछ दूर का फासला है बचा बस
पर मेरे हर नब्ज को ये पता है
बदला नही ये वही रास्ता है
चलता रहा हूँ जिसपर जिंदगी भर
खा धूल मिटटी पत्थर और ठोकर
है न अंत कोई, न है कोई मंजिल
फिर भी न जाने क्यूँ चला जा रहा हूँ..........

Wednesday, February 11, 2009

The last dream!

I dont remember how long back I wrote these poems, behind the pages of some notebook, on tables and chairs. All I have today are bits and pieces of paper which I now think should see the light of the day.

why 12sparrows??
In the book "The marauder`s last dream" (yet to be published :P), during the last moments of his life the marauder finds out the meaning of his dreams. As he sees the 12 sparrows fly past him, his regrets buried deep into to darkness of his heart, he smiles at them and embraces what he has been running from his entire life- death!