रोज़ सुबह जब आखे मीचे जाग खड़ा मैं होता हूँ
खिड़की के उसपार कहीं कुछ देख रहा भी होता हूँ
देखा है कभी पत्तों पर सुबह की ओस जो आहें भरती है
सूरज की हर किरण समेटे यूँ ही लेटे रहती हैं
कुछ पल के जीवन उसके रंग है इतने घुलते से
न पाने की चाहत है कुछ और वो ऐसा कहती है
और यहाँ मैं जाग रहा हूँ ख़ुद को हासिल होने को
हो तैयार है जाना मुझको भीड़ में शामिल होने को
दिन चढ़ते ही जाने भीड़ के मन में क्या समाता हैं
चल पड़ती है रौंद के उसको जो रस्ते में आता हैं
देखा है कभी इस भीड़ में वो चेहरे जो बहते जाते हैं
कुछ सोच रहे होते हैं वो, कुछ और ही कहते जाते हैं
बस पीछे पीछे आगे वाले के चलते जाने क्यूँ
किसी इमारत,गाड़ी में गुम होते रहते जाते हैं
मैं क्या बोलूं मैं भी तो उनमे से ही एक चेहरा हूँ
जानता हूँ क्या सोचा है पर न जाने क्या कह रहा हूँ
फिर शाम का वो विराना जब नभ रंग बदलने लगता है
थकते बादल के चेहरे पर सूरज जब ढलने लगता है
देखा है कभी उस बादल को, धीरे धीरे जो अम्बर से
भूल के दिन का हाल टिका रहता है लटके लंगर से
सोच रहा होता है ठहरती धूल तले इस धरती पर
कितने सपने पूरे कर लेगी भीड़ सुबह की अर्थी पर
काश वो बादल मैं होता तो हँसता उनपर अन्दर से
इक दिन और है खोया जिनने जीवन के शांत समंदर से
हर रात कभी सिरहाने मैं, जब सपने लेकर सोता हूँ
झुकती आखों से दूर कहीं कुछ देख रहा भी होता हूँ
देखा है कभी अंधेरे मैं परछाइयाँ कहाँ जाती हैं
वो सुनती हैं, बतियाती हैं, शर्मातीं हैं, इतराती हैं
अंधेरे मैं गुम होने का लुत्फ़ वो खूब उठाती हैं
हर बंधन, हर नज़र से होके मुक्त वो रात बिताती हैं
काश! मैं वो परछाई होता, हर दिन, दिन ढलते ही जो
कुछ पल को ही सही, पर हो आजाद जो हँसती गाती हैं
Thursday, February 12, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
dekha hai kabhi un shayaron ko...jo khayalon me hi doobe hote hain....duniya se alag kahin apne hi sapne sanjote hain...kaash mai bhi koi shayar hota to shayad dekh paata ki zindagi ki recipe kaise paroste hain.....sorry:D:P
ReplyDeletequite deep thinking...specially liked the 3rd para!:)
Bahot khoob, janaab.
ReplyDelete