Thursday, February 12, 2009
फासला.....
कहाँ से चला था, कहाँ जा रहा हूँ
पता तो नही, बस चला जा रहा हूँ
न काफिले हमसफ़र साथ कोई
अकेला क्यूँ जाने चला जा रहा हूँ
तारो का गुम्बद, फलक के वो फेरे
पलटता वो सूरज, बिखरते अंधेरे
दबी रौशनी में, चमकता जो उपर
लेने मैं शायद आसमा जा रहा हूँ
देखा था मैंने उसको आँखें मूंदे
झुकती पलक पर दो पानी की बूँदें
माँगा नही जिंदगी से कभी जो
करने मैं वो इल्तेजा जा रहा हूँ
उठते नही अब तूफ़ान मेरे मन में
इतनी ही ताकत बची है जहन में
बस कह दूँ एक अलविदा फिर से फिर
मैं न आने की कसमें निभा जा रहा हूँ
लगने लगा है मुझे आज वापस
कुछ दूर का फासला है बचा बस
पर मेरे हर नब्ज को ये पता है
बदला नही ये वही रास्ता है
चलता रहा हूँ जिसपर जिंदगी भर
खा धूल मिटटी पत्थर और ठोकर
है न अंत कोई, न है कोई मंजिल
फिर भी न जाने क्यूँ चला जा रहा हूँ..........
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ye kavita itne sahaj vakyon me kavi ke dil ki bhavnaon ko darshata hai aur saath hi padhne waale ko un bhavnaon ka ehsaas bhi dilaata hai(:P)........very nicely written, would like to read more...keep writing:)
ReplyDeleteisnt this from a lucky ali song? the words look really familiar.
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