Monday, February 16, 2009

खामोशी......

कभी अंधेरे दीवारों पर हाथ रखे सुनता हूँ मैं
की इस कैद से आज़ादी का मकसद क्या मदहोशी में
सिखा कितना कुछ मैंने इस दीवार से अक्सर जो
कहे सुने लब्जों से ज्यादा कह जाती खामोशी में....

एक ही कमरे के दो कोने में बैठे खामोशी से
सोच रहे थे की बातों का मतलब क्या मदहोशी में
बातें प्यार मोहब्बत की सालों से
कितनी अनसमझी
नफरत की हर नब्ज़ पकड़ ली दो पल की खामोशी में....

सब ग़लत है जो भी जाना था, सब ग़लत है जो भी समझा था
जो सोचा सब अनचाहा था , जो पाया सब अनसुलझा था
चिल्लाने का जी करता है कभी इन्हीं सन्नाटों पर
पूरे जिस्म से लिपट रहे हर तरफ से चुभते काँटों पर

..पर कहता हूँ ख़ुद को गुजरे इतने दिन मदहोशी में
बस कुछ पल है और बिता लो इनको भी खामोशी में ....

3 comments:

  1. wow,i can so easily relate to these lines, infact every person who has been in a hostel can understand these emotions!

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